Sunday, April 20, 2008

मर्त्य मानव के विजय का तुर्य हूँ

मर्त्य मानव के विजय का तुर्य हूँ
उवर्शी अपने समय का सूर्य हूँ
अंधतम के भाल पर पावक जलाता हूँ
बादलों के शीश पर स्यंदन चलाता हुँ,
पर न जाने बात क्या है
इन्द्र का आयुध पुरुष जो झेल सकता है
सिंह से बांहे मिलाकर खेल सकता है
फूल के आगे वहीं असहाय हो जाता
शक्ति के रहते हुऐ निरुपाय हो जाता
बिध हो जाता सहज बंकिम नयन के वाण से
जीत लेती रुपसी नारी उसे मुस्कान से
मै तुम्हारे बाण का बींधा हुआ खग
वक्ष पर घर शीश मरना चाहता हूँ
मै तुम्हारे हाथ का लीला कमल हूँ
प्राण के सर में उतरना चाहता हूँ।।
दिनकर

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