Sunday, April 20, 2008

उपदेशक

मुजरिम होकर
मुजरिम को सुधारने का काम,
यह भी एक स्वांग है
और यह स्वांग हम सभी भरते है।
जिन मजों से हम दूसरों को
रोकना चाहते है
उससे खुद परहेज नहीं करते है।

बैतरणी के छींटे किस पर नहीं पडे़ है
किसके दामन पर
फूलो के रस का दाग नहीं है

सपनो की देह को नंगी ऊँगली से
छूने को लोभ किसमें नही जगा है
कौन इतना जर्जर है
कि उसमें जवानी कि आग नहीं है.
तो उपदेशकों

आओ,हम ईमानदार बने
और मानव को डराए नहीं
बलि्क ये कहें-
जिस सरोवर का जल पीकर
तुम पछताते हो
उस तलाब का पानी,
हमनें भी पीया है
और जैसे तुम हँस-हँस के रोते
और रो-रो के हंसते हो
इसी तरह की हँसी और रुदन से
भरी जीवन हमने भी जिया है
यह बात और है कि कोई समृधि में है
और कोई अभाव में
लेकिन जहाँ तक मन का सवाल है
हम सभी एक ही नाव में है
सदियों से हमने तुम्हे भरमाया है,
अब और नहीं भरमायेंगे
जहाँ तक पहुँच कर रुक गए हम
उससे आगे का रास्ता नहीं बताऐंगे।

दिनकर

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