नाश के दुःख से कभी दबता नहीं निर्माण का सुख
प्रलय की निस्तब्धता से सृष्टि का नव गान फिर-फिर।
नीड़ का निर्माण फिर-फिर,
नेह का आहवान फिर-फिर
ःः
उजाड से लगा चुका उमीद मै बहार की
निबाध से उमीद की बसंत के बयार की,
मरुस्थली मरीचिका सुधामयी मुझे लगी
अँगार से लगा चुका उमीद मै तुषार की,
कहाँ मनुष्य है जिसे न भूल शूल सी गड़ी
इसलिए खडा रहा कि भूल तुम सुधार लो
इसलिए खडा रहा कि तुम मुझे पुकार लो
पुकार कर दुलार लो,दुलार कर सुधार लो।
ःः
अगर जग से मानव घबराय कहाँ पर वह बेचारा जाय,
धरा में धँसने से असमर्थ गगन पर चढने को निरुपाय,
प्रार्थना का यदि ले अवलम्ब कहाँ है देवों के आवास,
अगर हो भी उनका अस्तित्व, कहाँ है अंतर में विश्वास.
ःः
स्वप्न में तुम हो, तुम्ही हो जागरण में।
कब उजाले में मुझे कुछ और भाया
कब अँधेरे ने तुम्हे मुझसे छिपाया,
तुम निशा में और तुम्ही प्रातः किरण में
स्वप्न में तुम हो, तुम्ही हो जागरण में।
जो कही मैने तुम्हारी थी कहानी,
जो सुनी उसमें तुम्ही तो थी बखानी,
बात में तुम और तु्म्ही वातावरण में,
स्वप्न में तुम हो,तुम्ही हो जागरण में,
ध्यान है केवल तुम्हारी ओर जाता
ध्येय में मेरे नहीं कुछ और आता,
चित्त में तुम हो,तुम्ही हो चितवन में.
स्वप्न में तुम्ही हो,तुम्ही हो जागरण में।
रुप बनकर घुमता जो वह तुम्ही हो,
राग बनकर गुंजता जो वह तुम्ही हो,
तुम नयन में और तुम्ही अंतःकरण में
स्वप्न में तुम हो,तुम्ही हो जागरण में।
Sunday, April 20, 2008
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