हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार,परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सडक पर,हर गली में,हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
मेरे सीने में सही ना तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
दुष्यंत कुमार
Sunday, April 20, 2008
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2 comments:
hi pankaj,
This is really nice poem.Hope that someday u will write better poem urself.
this is gem of a poem.......i tried hard but couldn't find a poem better than this in hindi literature......do read this n i thank blogger for posting such a poem..........
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